Wednesday, July 9, 2025

'दीवार में एक खिड़की रहती थी'  (पुस्तक समीक्षा)

‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ विनोद कुमार शुक्ल की एक ऐसी कृति है जिसमें लेखक ने अलग लेखन शैली का प्रयोग किया है। आरंभ में हो सकता है कि कुछ पाठक इसकी भाषा व लेखन शैली से तादात्म्य ना बना सकें और बहुत सम्भव है कि ऊबकर इसे बीच में ही छोड़ दें। पर यदि आप साहित्य में रुचि रखते हैं, उसे समझते हैं, या समझना चाहते हैं और आपके मन मस्तिष्क में किसी एक शैली को लेकर आग्रह का भाव नहीं है, तो निश्चित ही आपको ये उपन्यास पढ़ना चाहिए।
यकीन मानिये, अगर आप कुछ पृष्ठों से गुज़र गए तो आपकों उसके बाद पता नहीं लगेगा कि कब आपने आधी यात्रा तय कर ली है और कब रघुवर प्रसाद, हाथी पर आता हुआ साधु और घर की दीवार की खिड़की आपके अपने हो गए हैं। यद्यपि भाषा सहज है किन्तु शुक्ल जी द्वारा लेखन शैली के स्तर पर किए गए नए प्रयोग, शुरुआती पाठकों को उबाऊ लग सकते हैं ; किन्तु एक समय के बाद आप पाएंगे कि रघुवर प्रसाद को आप जानते हैं बहुत अच्छे से, आप सोचेंगे की ऐसा कैसे हो सकता है ; पर जैसे – जैसे आप कृति में डूबने लगेंगे आप पहचान जाएंगे कि अरे, ये रघुवर प्रसाद तो हमारे गाँव में रहने वाला एक निम्न परिवार का वही व्यक्ति है जिसके बहुत सारे सपने हैं मसलन, कि बड़े होकर घर वालों की मदद करेंगे पर वह जानता है उसके लिए एक नौकरी ढूढ़नी होगी, नौकरी मिलने पर व्याह होगा एक सुन्दर सी जीवनसाथी होगी आदि आदि ।

इसी पृष्टभूमि को लेकर रचित यह उपन्यास हमें एक ऐसे ही व्यक्ति ‘रघुवर प्रसाद’ के जीवन के उन क्षणों से मिलाना चाहता है जहां वह सीमित संसाधनों में भी अपनी संगिनी ‘सोनसी’ के साथ प्रसन्न है।
रघुवर प्रसाद एक महाविद्यालय में व्याख्याता हैं और इसके लिए उनका शहर आना हुआ है, जो शहर से कुछ दूर गांव ही है जहाँ उन्होंने एक सुन्दर सा घर लिया है किराये पर। पर चूँकि उनकी धर्मपत्नी सोनसी का आगमन हो गया है इधर, तो अब ये मकान घर हो गया है अब घर में आपको सब व्यवस्थित मिल जाएगा ; घर में किताबें कहाँ होंगी, बर्तन कहां होंगे और सबसे ज़रूरी ये कि संडास की चाभी अब बर्तनों के साथ नहीं रखी जाएगी, इन सबकी नियति निर्धारक सोनसी ही है। और हाँ एक बात और उस प्यारे से घर में एक खिड़की रहती है जो हम सबके मन की खिड़की है । खिड़की के उस पार एक अलग दुनिया है, रघुवर प्रसाद की अपनी दुनिया, जो इस दुनिया से बिल्कुल अलग है। उस दुनिया में एक सुन्दर सी प्रकृति हैं, तरह- तरह के पुष्प हैं, लताएँ हैं, और एक सुन्दर सा पोखर है जिसमें आप, रघुवर प्रसाद और उनकी पत्नी को यदा- कदा जीवन के कुछ अनमोल क्षणों का आनंद लेते हुए हैं देख सकते हैं, और सबसे अच्छी बात ये कि खिड़की के परे की दुनिया में एक बूढ़ी माँ भी हैं, जो कभी दोनों प्रेमियों को प्रेम करती देख आनंदित होती हैं, कभी उनके लिए गरमा- गरम चाय ले आती हैं, तो कभी सोनसी को अपनी बेटी मानकर उसे उपहार देती हैं।


निसंदेह ‘साहित्य अकादमी’ से पुरस्कृत यह उपन्यास अपनी सहजता के साथ पाठक के ह्रदय में एक कोमल छाप छोड़ता है।
लिखने को तो और भी बहुत कुछ है पर अभी इतना ही। सोचिए मत ज़्यादा, शुरू कीजिए।
यकीन मानिये, जितनी खुशी आपको ये छोटी सी समीक्षा पढ़कर हो रही उससे कहीं ज़्यादा, मूल रचना पढ़कर होगी।


पुस्तक – दीवार में एक खिड़की रहती थी

लेखक – विनोद कुमार शुक्ल


शुभकामनाएं!
शिवेन्द्र पाण्डेय

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