
पूस का महीना था हवाओं में सर्द ठंडक कहर बरपा रही थी मानों अपने एक प्रहार से ही हाड़ -मांस को गला देना चाहती हो , समय अभी मुश्किल से शाम के 7-8 का ही रहा होगा पर ऐसा सन्नाटा हो चला था कि लगता था, आज ही यहां महामारी या फ़िर किसी दानव के प्रकोप से लोग घरों में दुबक गये हैं । पंछियों के झुंड के झुंड अपने तीव्र कोलाहल के साथ परेड करते हुए अपने-अपने आश्रयस्थलों को उड़े चले जा रहे थे और उन्हीं के साथ मैं भी अपने गंतव्य की ओर!
मेरे जाने में कोई नयी बात नहीं , मैं इसी पथ का राही हूं, हाँ आज अन्तर सिर्फ़ इतना है कि, रोज़ाना मैं 5 बजे ऑफिस से निकल जाता हूँ ताकि ऑफिस के वाहन से घर चला जाऊँ पर आज शायद कुछ ज़्यादा काम की वजह से या शायद कोई और वज़ह से समय का पता ही नहीं लगा और गाड़ी छूट जाने से आज पैदल ही जा रहा हूं ।ऑफिस से घर मुश्किल से दो मील की दूरी पर होगा पर मुझे आज घर पहुंचने की कोई ज़ल्दी नहीं है। मैं हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड में ऐसे चल रहा था जैसे दिनभर की थकी गायें चरवाहे के बार – बार हांकने पर भी अपनी ही मंद गति से चलती हैं।
सहसा पीछे से आवाज़ आयी, अरे रुको भाई, कहाँ जा रहे हो? …. ये रास्ता तो सुन्दरनगर जाता है ना , वहीं जा रहे हो क्या? मैंने कोई जबाव नहीं दिया, उसने फिर कहा बड़े बेमुरव्वत जान पड़ते हो, मैं भी वहीं जा रहा हूं सोचा साथ हो जाएगा, इतना कहते – कहते ‘वो’ मेरे करीब आ गया मैंने तिस पर भी कोई जबाव नहीं दिया बस चलता रहा। स्टील की कंपनी में काम करते हो ना, मैं भी वहीं काम करता हूँ, उसने कहा। मैं अपनी चाल में मन्द- मंद चले जा रहा था, मेरा उससे बात करने का मन नहीं था या मैं उस वक्त कुछ सुनना नहीं चाहता था, पता नहीं!
पर वो भी अजीब था बिलकुल मेरी तरह! मेरे कोई जबाव ना देने पर भी उसे कोई झिझक नहीं हुई.. मैं बस सुनता चला जा रहा था उसकी बातें। उसने कहा अजी कहाँ गुम हो? उसने मुझे ज़ोर से झकझोर दिया , कुछ बोलते क्यों नहीं, मैं अबतक जैसे किसी अलग ही दुनिया में था अचानक मैं बोल उठा, हाँ! .. मैंने शर्मिंदगी के भाव से कहा माफ़ करियेगा मेरा आप पर ध्यान नहीं गया! उसने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा और कुछ मिनटों तक बस देखता ही रह गया जैसे वह सबकुछ पढ़ लेना चाहता हो ;वह सबकुछ, जिसे मैं पिछले 20 वर्ष से ढो रहा था अंदर ही अंदर! उसने फ़िर मुस्कराते हुए कहा कोई राज़ की बात हो तो हमें भी बताओ भाई! मैं चुपचाप किन्तु अब तीव्र कदमों से घर की ओर बढ़ा चला जा रहा था जैसे सहसा मुझे कोई अति आवश्यक बात याद आ गयी हो! उसने भी क़दम बढ़ाए और मेरे साथ हो लिया। मेरा भी घर यही सुन्दर नगर में हैं उसने कहा, मैंने उसकी तसल्ली के लिए सिर हिला दिया, आज से कोई 20 वर्ष पहले मैंने यहीं पास की स्टील कम्पनी में जूनियर सुपरवाइज़र के पद पर नियुक्ति प्राप्त की थी और आज मैं मैनेजर के पद पर पहुंच गया हूं, वैसे आप किस पद पर हैं भाई साहब? उसने मेरा पद नहीं, बल्कि ये जानने के लिए पूछा था कि मैं उसकी बातों को सुन रहा हूँ या नहीं! मैंने कहा जी मैं भी मैनेजर के पद पर इसी वर्ष पदोन्नत हुआ हूँ, उसने कहा अच्छा अच्छा! मेरा जबाव पाते ही वो महाशय फिर शुरू हो गए.. मैंने जब आज से बीस वर्षं पहले जॉइन किया था तब मैं नवयुवक था उस समय बड़ी ख़ुशी हुई थी जॉब मिलने की, आज भी है पर उतनी नहीं, थोड़ी मंद आवाज़ में मुंह पिचकाते हुए उसने कहा। मुझे उसकी बातों में कुछ – कुछ रुचि पैदा हुई मैंने पूछ लिया, क्यों?
क्यों क्या भाई! उदासी के भाव से उसने फिर मुँह पिचकाया, और मुंह में भरे हुए पान की गिलोरी को थूकते हुए बोला, जब नौकरी मिली तो लगा चलो अब दुनिया की झंझटों से मुक्त हुए, अब समाज के, घरवालों के, ताने नहीं सुनने पड़ेंगे ‘अब दूसरी ज़िन्दगी होगी’ , मैंने सिर हिलाते हुए कहा, तो? तो क्या! घर, समाज के ताने तो छूट गए, पर उन तानों के साथ और भी बहुत कुछ छूट गया, उसने कहते हुए गहरी साँस भरी! मुझे उसकी बातों में रोमांच पैदा होने लगा मैं फिर मन्द गति से चलने लगा, उसकी बातों में मुझे कुछ-कुछ अपनेपन की मीठी किन्तु उतनी ही जानी -पहचानी सुगंध आने लगी थी ।
शाम ढल चुकी थी सूर्यदेव अस्त हो चले थे और कहीं- कहीं झींगुरों की आवाज़ सुनाई पड़ जाती थी, हम दोनों, चले जा रहे थे दो मील के एक ऐसे रास्ते पर जो पिछले एक घण्टे से ख़त्म ही नहीं हो रहा था। मैंने पूछा, ऐसा क्या छूट गया आपका? सब तो है आपके पास ;एक अच्छा मकान , सुन्दर पत्नी, दो सुन्दर – सुन्दर बच्चे हैं, अच्छा खा रहे हैं, पहन – ओढ़ रहे हैं और इससे ज़्यादा भला किसी आदमी को ख़ुश रहने के लिए क्या चाहिए। उसने फिर गहरी साँस भरी और गम्भीर स्वर में बोला “भाई! अच्छा घर बीवी, बच्चे, ये सब होना खुशी के साधन हैं, वास्तविक ख़ुशी नहीं ", मैं ध्यानपूर्वक उसकी बातें सुन रहा था उसकी बातों में मुझे अपनापन महसूस हो रहा था। मैंने आश्चर्य के भाव से पूछा तो फिर क्या होने से ख़ुशी मिलेगी और आप कुछ छूटने की बातें कर रहे थे ना! उसने कहा हाँ! इन बीस वर्षों के दीर्घ समयान्तराल में बहुत कुछ पीछे छूट गया है भाई! वो बचपन के दिन, मैं मुश्किल से उन दिनों 18-20 वर्ष का मस्ती, जोश और शरारतों से भरा युवक ही तो था ; एक अलग ही ऊर्जा थी उन दिनों कहते – कहते उसकी आवाज़ भर्रा उठी और आँखों से दो बूंद आंसू ढुलक गए, मैंने सांत्वना दी भाई साब सम्भालिये, उसने कहा वह ठीक है ! मेरी फ़िर कुछ और पूछने की हिम्मत नहीं हुई हम दोनों चुपचाप मौन धारण किए कुछ कदम चलते रहे कि उसने कहा, भाई! कैसी अज़ीब ज़िन्दगी हो गयी है घर से से रोज़ सुबह 9 बजे काम पर आता हूं, दिनभर यहाँ मशीनों को चलते, उनकी खट – खट की आवाज़ों को सुनता हूं, उनपर रोज़ वही काम कर रहे उदास चेहरों को देखता हूं और फ़िर घड़ी के पाँच बजाते ही घर को निकल जाता हूं, इसी रास्ते से, कभी पैदल तो कभी बस से! बस इतनी ही ज़िन्दगी रह गयी है। उसकी बातों में मैं जैसे खो सा गया था, उसके शब्दों में, मैं कहीं ना कहीं ख़ुद को ढूँढ रहा था कि सहसा फ़िर एक जानी-पहचानी आवाज़ आयी पर ये उसकी नहीं थी ; ये तो मेरी पत्नी नंदनी की आवाज़ थी। “आज बड़ी देर कर दी!”
मैंने कहा ‘हाँ’ !
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