
हर बात को बात से काटना, हर तर्क को दूसरे तर्क से भिड़ाना उनका मूल्यांकन करना पूरी ताक़त लगा देना अपनी बात को सिद्ध करने के लिए, और अंत में प्रसन्न होना उन तर्कों, विचारों पर विजय प्राप्त कर लेने पर। आखिर क्यों? हम क्यों इतने असहनशील और उग्र हो जाते हैं, कि हमें हर बात का तर्क चाहिए, उन तर्कों का विश्लेषण चाहिए ; हमें क्यों बातों का चीर – फाड़ किए बिना चैन नहीं पड़ता? क्यों हम विचारों को उनके मूल रूप में, उनके वास्तविक अस्तित्व में स्वीकार नहीं कर पाते? क्यों हमें हर तर्क में उस विचार के अलग – अलग अर्थ निकालने होते हैं ;मसलन मुझे मसूरी जाना, वहां के सुन्दर बर्फीले पहाड़ों में घूमना पसंद है, इसपर भी लोगों के तरह तरह के मत हो सकते हैं जैसे कि किसी को कुल्लू मनाली तो किसी को शिमला की ठंडी वादियाँ भाती होंगीं। किन्तु इन सबके विपरीत एक वर्ग ऐसा भी हो सकता है जिन्हें इन दोनों ही स्थानों में कोई रुचि ना हो और वें कभी वहां जाना न चाहें। इसमें कोई हर्ज़ नहीं है, लोगों की पंसद, उनकी रुचियों में भिन्नता हो सकती है क्योंकि भिन्नताओं का होना ही हमें मनुष्यता के करीब लाता है, हमें ज़्यादा मनुष्य बनाता है। क्योंकि विचार, समझ तो आज कम्प्यूटर, आर्टिफिशियल इन्टेलीजेंस, और भांति- भांति के रोबॉट्स के पास भी है पर वो मनुष्यों की तरह सोच नहीं सकते, उनमें हम मनुष्यों की तरह भावनाएँ नहीं हैं, वो हमारी तरह हँस – रो नहीं सकते, वो अपने अन्दर की पीड़ा, संत्रास को साझा नहीं कर सकते, वो हमारी तरह महसूस नहीं कर सकते क्योंकि उनमें ऐसी क्षमताएँ है ही नहीं; ये सिर्फ़ और सिर्फ़ प्राणियों में ख़ासकर मनुष्यों में हैं , फिर क्यों हम हर बात को मशीनी चश्मे लगाकर देखना चाहते हैं!
बहरहाल, विचार वैविध्य व्यक्ति विशेष की स्वतन्त्रता है, किन्तु उन विचारों, उन मतों को, क्यों दूसरे के विचारों को सीमित करने का माध्यम बनाना, हम विचारों की भिन्नताओं को उनके भिन्न रूप में भी तो अपना सकते हैं। महापुरुष महावीर के पंच व्रतों में अहिंसा भी एक व्रत है, कालांतर में गौतम बुद्ध एवं महात्मा गांधी ने भी बार – बार अहिंसा के सिद्धांतो की दुहाई दी है। ध्यातव्य है कि यहाँ अहिंसा से आशय सिर्फ़ मारपीट, लाठी- डंडे ना चलाने से नहीं है बल्कि इसका सूक्ष्म और व्यापक अर्थ है वैचारिक हिंसा से मुक्त होना, व्यक्तित्व में इतनी परिपक्वता और विवेक होना की हम दूसरे के तर्कों उनके विचारों को शांत भाव से सुन सकें, समझ सकें, और उचित प्रतीत होने पर उन्हें बिन तोड़े- मरोड़े उनके मूल रूप में ही स्वीकार कर सकना ही वास्तविक अर्थों में अहिंसा है।
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Kaphi achha likha hai aap ne
ReplyDeleteधन्यवाद
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