Saturday, October 4, 2025

"तुम्हारें जाने के बाद"





मैं जानता हूं तुम एक दिन चले जाओगे
बहुत दूर
कितना दूर नहीं जानता
शायद इतना कि मैं जान सकूँ 
तुम्हारा जाना क्या होता है
शायद इतना मैं जान पाऊँ
तुम्हारा होना क्या होता है। 

और आज जब तुम चले गए हो
मुझे ठीक - ठीक एहसास हो गया है कि तुम चले गए हो 
आज तुम्हारें कपड़े, जूते, और किताबें सब व्यवस्थित हैं 
हो भी क्यों ना 
उन्हें भी पता है तुम चले गए हो। 

नीम की शाखाओं से तुम्हारा झूला टंगा है 
कुछ चिड़ियों का झुंड मंडरा रहा है 
झूले के पास 
पर सब में आज एकमत से चुप्पी है 
कोई चहचहाहट नहीं है 
चावल के दाने तो आज भी बिखरे हैं वहां 
पर शायद चिडियों का आज उपवास है 
या झूले का , पता नहीं 
शायद वो जान गए हैं        
तुम्हारा जाना क्या होता है 
और शायद मैं भी। 

और अब मैं जान गया हूँ 
तुम्हारें जाने के बाद क्या होता है। 

🖋️शिवेन्द्र 



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Wednesday, July 9, 2025

'दीवार में एक खिड़की रहती थी'  (पुस्तक समीक्षा)

‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ विनोद कुमार शुक्ल की एक ऐसी कृति है जिसमें लेखक ने अलग लेखन शैली का प्रयोग किया है। आरंभ में हो सकता है कि कुछ पाठक इसकी भाषा व लेखन शैली से तादात्म्य ना बना सकें और बहुत सम्भव है कि ऊबकर इसे बीच में ही छोड़ दें। पर यदि आप साहित्य में रुचि रखते हैं, उसे समझते हैं, या समझना चाहते हैं और आपके मन मस्तिष्क में किसी एक शैली को लेकर आग्रह का भाव नहीं है, तो निश्चित ही आपको ये उपन्यास पढ़ना चाहिए।
यकीन मानिये, अगर आप कुछ पृष्ठों से गुज़र गए तो आपकों उसके बाद पता नहीं लगेगा कि कब आपने आधी यात्रा तय कर ली है और कब रघुवर प्रसाद, हाथी पर आता हुआ साधु और घर की दीवार की खिड़की आपके अपने हो गए हैं। यद्यपि भाषा सहज है किन्तु शुक्ल जी द्वारा लेखन शैली के स्तर पर किए गए नए प्रयोग, शुरुआती पाठकों को उबाऊ लग सकते हैं ; किन्तु एक समय के बाद आप पाएंगे कि रघुवर प्रसाद को आप जानते हैं बहुत अच्छे से, आप सोचेंगे की ऐसा कैसे हो सकता है ; पर जैसे – जैसे आप कृति में डूबने लगेंगे आप पहचान जाएंगे कि अरे, ये रघुवर प्रसाद तो हमारे गाँव में रहने वाला एक निम्न परिवार का वही व्यक्ति है जिसके बहुत सारे सपने हैं मसलन, कि बड़े होकर घर वालों की मदद करेंगे पर वह जानता है उसके लिए एक नौकरी ढूढ़नी होगी, नौकरी मिलने पर व्याह होगा एक सुन्दर सी जीवनसाथी होगी आदि आदि ।

इसी पृष्टभूमि को लेकर रचित यह उपन्यास हमें एक ऐसे ही व्यक्ति ‘रघुवर प्रसाद’ के जीवन के उन क्षणों से मिलाना चाहता है जहां वह सीमित संसाधनों में भी अपनी संगिनी ‘सोनसी’ के साथ प्रसन्न है।
रघुवर प्रसाद एक महाविद्यालय में व्याख्याता हैं और इसके लिए उनका शहर आना हुआ है, जो शहर से कुछ दूर गांव ही है जहाँ उन्होंने एक सुन्दर सा घर लिया है किराये पर। पर चूँकि उनकी धर्मपत्नी सोनसी का आगमन हो गया है इधर, तो अब ये मकान घर हो गया है अब घर में आपको सब व्यवस्थित मिल जाएगा ; घर में किताबें कहाँ होंगी, बर्तन कहां होंगे और सबसे ज़रूरी ये कि संडास की चाभी अब बर्तनों के साथ नहीं रखी जाएगी, इन सबकी नियति निर्धारक सोनसी ही है। और हाँ एक बात और उस प्यारे से घर में एक खिड़की रहती है जो हम सबके मन की खिड़की है । खिड़की के उस पार एक अलग दुनिया है, रघुवर प्रसाद की अपनी दुनिया, जो इस दुनिया से बिल्कुल अलग है। उस दुनिया में एक सुन्दर सी प्रकृति हैं, तरह- तरह के पुष्प हैं, लताएँ हैं, और एक सुन्दर सा पोखर है जिसमें आप, रघुवर प्रसाद और उनकी पत्नी को यदा- कदा जीवन के कुछ अनमोल क्षणों का आनंद लेते हुए हैं देख सकते हैं, और सबसे अच्छी बात ये कि खिड़की के परे की दुनिया में एक बूढ़ी माँ भी हैं, जो कभी दोनों प्रेमियों को प्रेम करती देख आनंदित होती हैं, कभी उनके लिए गरमा- गरम चाय ले आती हैं, तो कभी सोनसी को अपनी बेटी मानकर उसे उपहार देती हैं।


निसंदेह ‘साहित्य अकादमी’ से पुरस्कृत यह उपन्यास अपनी सहजता के साथ पाठक के ह्रदय में एक कोमल छाप छोड़ता है।
लिखने को तो और भी बहुत कुछ है पर अभी इतना ही। सोचिए मत ज़्यादा, शुरू कीजिए।
यकीन मानिये, जितनी खुशी आपको ये छोटी सी समीक्षा पढ़कर हो रही उससे कहीं ज़्यादा, मूल रचना पढ़कर होगी।


पुस्तक – दीवार में एक खिड़की रहती थी

लेखक – विनोद कुमार शुक्ल


शुभकामनाएं!
शिवेन्द्र पाण्डेय

Sunday, May 18, 2025

"तुम साहित्य के करीब तो जाओ"



“तुम साहित्य के करीब तो जाओ
वो तुम्हें तुम्हारे करीब ला देगा।”

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/ शिवेन्द्र

"मेरे हिस्से का नहीं है "

मैंने कितनी बार तुमसे कहा है मैं तुम्हें नहीं जानता, मेरे जानने में शायद अब कोई अर्थ नहीं। और सच कहूँ तो मैं अब जानना ही नहीं चाहता। मैं नहीं जानना चाहता वह सब जो घटित हुआ या कभी घटित होगा क्योंकि अब घटनाओं के घटने का कोई अर्थ नहीं रहा । और जब मैं बार - बार अर्थ ना होने की बात करता हूँ तब मेरे नज़रों के सामने कुछ कौंध सा जाता है ; एक अजीब सी धुन्ध का धुँधलका जिसे शायद मैं अच्छे से जानता हूँ, और शायद तुम भी! पर फिर मुझे याद आता कि मेरे जानने में कोई अर्थ नहीं क्योंकि मुझे ठीक -ठीक एहसास है कि यह धुँधलका मेरे हिस्से का नहीं है ।

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/शिवेन्द्र

Tuesday, April 15, 2025

कभी - कभी किसी चीज की खोज में


कभी - कभी हम किसी चीज की खोज में इतना दूर निकल 

आते हैं कि हम खुद को खो देते हैं,

और तब हमें महसूस होता है कि हम वास्तव में बहुत

दूर निकल आए हैं! 

Saturday, March 29, 2025

जहां सारा शहर अपना था और तुम अजनबी थे …



कभी सारा शहर अपना था और तुम अजनबी थे..

तुम अपने हुए तो शहर अजनबी हो गया..

अब, ना तुम अपने हो ना शहर अपना है..

उस मोड़ से शुरू करनी है फिर से ज़िंदगी ,

जहां सारा शहर अपना था और तुम अजनबी थे …

🖊️आशुतोष राणा 

Saturday, March 8, 2025

Happy Women's Day

याद रखना
वह कहेंगे :

कम बोलो
कम खाओ

कम सजो
कम घूमो

कम हँसो
कम खिलखिलाओ

कम बनाओ दोस्त
कम करो सपने

कम हो
रहो कम

मेरी दोस्त!
तुम कम सुनना…

– शैलजा पाठक

Thursday, March 6, 2025

"मैं कभी हाँ नहीं कह पाया"



" सवालों – जवाबों का सिलसिला भी अजीब था,

उसने कभी मना नहीं किया

और मैं कभी हाँ नहीं कह पाया।" 


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Wednesday, March 5, 2025

"पत्तों का झड़ना"


पेड़ों से पत्तों का झड़ना,

पुनः नई कोंपलों का फूटना,

उन कोंपलों का शाखा बनना ,

शाखाओं का तरु बन जाना

इस बात का संकेत है कि प्रकृति निरंतर सृजनशील है।


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Tuesday, March 4, 2025

क्यों समझ नहीं पाते..



कुछ बातों को हम कभी नहीं समझ पाते,

उनका घटना हमें परेशान करता है , व्याकुल करता है,

हम बार – बार जूझते हैं, लड़ते हैं,

टूटते हैं, बिखरते हैं, लहुलुहान होते है,

कभी उन बातों से तो कभी स्वयं से,

फिर भी हम उन्हें क्यों समझ नहीं पाते…….


 *****

Monday, March 3, 2025

तर्क - वितर्क


हर बात को बात से काटना, हर तर्क को दूसरे तर्क से भिड़ाना उनका मूल्यांकन करना पूरी ताक़त लगा देना अपनी बात को सिद्ध करने के लिए, और अंत में प्रसन्न होना उन तर्कों, विचारों पर विजय प्राप्त कर लेने पर। आखिर क्यों? हम क्यों इतने असहनशील और उग्र हो जाते हैं, कि हमें हर बात का तर्क चाहिए, उन तर्कों का विश्लेषण चाहिए ; हमें क्यों बातों का  चीर – फाड़ किए बिना चैन नहीं पड़ता? क्यों हम विचारों को उनके मूल रूप में, उनके वास्तविक अस्तित्व में स्वीकार नहीं कर पाते? क्यों हमें हर तर्क में उस विचार के अलग – अलग अर्थ निकालने होते हैं ;मसलन मुझे मसूरी जाना, वहां के सुन्दर बर्फीले पहाड़ों में घूमना पसंद है, इसपर भी लोगों के तरह तरह के मत हो सकते हैं जैसे कि किसी को कुल्लू मनाली तो किसी  को शिमला की ठंडी वादियाँ भाती होंगीं। किन्तु इन सबके विपरीत एक वर्ग ऐसा भी हो सकता है जिन्हें इन दोनों ही स्थानों में कोई रुचि ना हो और वें कभी वहां जाना न चाहें। इसमें कोई हर्ज़ नहीं है, लोगों की पंसद, उनकी रुचियों में भिन्नता हो सकती है क्योंकि भिन्नताओं का होना ही हमें मनुष्यता के करीब लाता है, हमें ज़्यादा मनुष्य बनाता है। क्योंकि विचार, समझ तो आज कम्प्यूटर,  आर्टिफिशियल इन्टेलीजेंस, और भांति- भांति के रोबॉट्स के पास भी है पर वो मनुष्यों की तरह सोच नहीं सकते, उनमें हम मनुष्यों की तरह भावनाएँ नहीं हैं, वो हमारी तरह हँस – रो नहीं सकते, वो अपने अन्दर की पीड़ा, संत्रास को साझा नहीं कर सकते, वो हमारी तरह महसूस नहीं कर सकते क्योंकि उनमें ऐसी क्षमताएँ है ही नहीं; ये सिर्फ़ और सिर्फ़ प्राणियों में ख़ासकर मनुष्यों में हैं , फिर क्यों हम हर बात को मशीनी चश्मे लगाकर देखना चाहते हैं!

बहरहाल, विचार वैविध्य व्यक्ति विशेष की स्वतन्त्रता है, किन्तु उन विचारों, उन मतों को, क्यों दूसरे के विचारों को सीमित करने का  माध्यम बनाना, हम विचारों की भिन्नताओं को उनके भिन्न रूप में भी तो अपना सकते हैं। महापुरुष महावीर के पंच व्रतों में अहिंसा भी एक व्रत है, कालांतर में गौतम बुद्ध एवं महात्मा गांधी ने भी बार – बार अहिंसा के सिद्धांतो की दुहाई दी है। ध्यातव्य है कि यहाँ अहिंसा से आशय सिर्फ़ मारपीट, लाठी- डंडे  ना चलाने से नहीं है बल्कि इसका सूक्ष्म और व्यापक अर्थ है वैचारिक हिंसा से मुक्त होना, व्यक्तित्व में इतनी परिपक्वता और विवेक होना की हम दूसरे के तर्कों उनके विचारों को शांत भाव से सुन सकें, समझ सकें, और उचित प्रतीत होने पर उन्हें बिन तोड़े- मरोड़े उनके मूल रूप में ही स्वीकार कर सकना ही वास्तविक अर्थों में अहिंसा है।

                       

                           ****


Wednesday, February 26, 2025

अंतर्द्वंद





 मैंने लोगों को समझने के क्रम में,


खुद को हर बार दुःख और अंतर्द्वंद से जूझते पाया है।




Thursday, January 30, 2025

"सफ़र"





 जब चलते – चलते

मार्ग के अंत की चिंता ख़त्म हो जाए,

जब किसी गंतव्य तक पहुंचने की बेचैनी न रहे,

जब कहीं पहुंचना है इसलिए न चलना पड़े

बल्कि चलने में ही आनंद आने लगे,

तब समझ लेना आप सिर्फ़ चल नहीं रहे हैं

बल्कि जी रहे हैं अपने सफ़र को, अपनी मंजिल को,

और तब आप पाएंगे कि सफ़र और गंतव्य में

कोई अन्तर शेष नहीं रहा।


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Tuesday, January 28, 2025

"इंतज़ार"




“किसी चीज का इंतज़ार


वास्तव में हमारे सहनशीलता की परीक्षा है,


क्योंकि उन क्षणों में हम क्षण – क्षण


मानसिक तौर पर घुल रहे होते हैं।”


****

Sunday, January 26, 2025

"तुम मुझे कभी नहीं जान पाओगे"



 

तुम मुझे कभी नहीं जान पाओगे,

क्योंकि उसके लिए तुम्हें मेरे करीब आना होगा,

और ऐसा कभी नहीं होगा,

क्योंकि मुझे दूर जाने का रोग है!



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Saturday, January 25, 2025

"वो बैठा है"



 निर्जन वन में,

किसी पेड़ की छाव में,

बैठा है वो, नितांत अकेला ।

उसके चेहरे पर मंद सी मुस्कान है,

उस मुस्कान में एक सुकून सा है,

अजीब सी मनमोहकता है,

वह बिन वज़ह खींचती है अपनी ओर,

मैं खींचा चला जा रहा हूँ उस सुकून में ,

उस सुकून से उपजे एकान्त में ।

वो बैठा है निर्जन वन में किसी दरख़्त की छाव में,

एकदम अकेला अपने एकान्त में ।

***

दरख़्त– पेड़

Friday, January 24, 2025

" In the Shadow of Trees"



Neem plant




I was around 4-5 years old when there was a  Neem plant right in front of my house, it is still there, but it has grown much bigger than me today – in age and perhaps height too. When I was small, I used to think that trees must be having so much fun; no hassle of going anywhere, no hassle of cooking food, washing clothes; they don’t even have to listen to the scoldings of mom and dad, they are free from cold and heat. What more could I have thought in that small mind. Before I grow up, let me take you exactly 15-20 years ago where we both were in our childhood; me and a small neem plant, planted at my doorstep.


One day papa brought a neem plant and I was busy making mud houses outside. I loved making mud houses, you must have liked it too. They were arranged exactly like the houses of today or those of that time; for example, our house should have a window, a door and there should be a big ground to sit outside in which I and my friends can play ‘Gulli-Danda’ , ‘kanche’ and ‘catch-catch’ games. Sometimes when I remember those days, I feel how imaginative and full of enthusiasm we used to be in childhood, and today! … 

Anyway,I asked my father which plant is this, he said it is Neem! I was unaware of this name at that time, I only knew the names of mango and jamun, the reason was clear because we got sweet mangoes and jamuns to eat from them. I asked father what is this Neem? Then what, father described the smallest qualities of Neem like that it is a very useful tree, it gives us clean air and its medicinal properties in great detail. He said that son, this Neem also cures many diseases, I was standing in a surprised posture and listening carefully, I understood some things, while some went over my head like Neem leaves. But my childish mind had understood this much, that this is a very useful thing. Then months and years passed, we both started growing up, the only difference was that my growth was clearly visible from the changes coming in my face and other organs, but I was not able to understand any difference in that plant.  I went to hostel for studies, when I returned home in summer vacations, I found that the neem plant had now become a tree; I was filled with curiosity and went close to it, perhaps I was eager to meet my childhood friend. I saw its branches which had now become very healthy like a young man arms, those long branches with small leaves full of green colors were attracting me as if they were calling their childhood friend even today. I could not stop myself and hugged that neem tree. Then as long as I stayed at home, we both spent a lot of time together, I swung in those strong arms, those one month of vacations passed laughing and playing in that swing, in that ‘tree’s shade’, I did not even realize when and the time for me to go to hostel also came.


In childhood, I used to think that this neem tree is so lucky that it does not have to go far from home to study or work; but today, after 15 years, my view about that friend has completely changed, today I can understand his pain. How difficult it must be to bear cold, heat and rain at one place, we have made a lot of arrangements for ourselves, when we feel cold, we cover ourselves with thick warm blankets or those who are a little rich, have equipment like heaters and geysers which do not let them feel the cold. Similarly, in summer we protect ourselves with air conditioners, fans, coolers and in rainy season we protect ourselves with various resources like umbrellas and rain coats. But these trees cannot even say that they are feeling cold or they are sweating or that someone should protect them from the rain.  Just like we get bored of living or seeing one place, perhaps these speechless trees too get bored of seeing the same people every day for years at the same place and perhaps they too wish to go somewhere else, to a new place, to meet new people. But perhaps it is their destiny to stay at the same place for life, just to keep silently watching the continuous journey of changing generations.

NEEM – Margosa tree or Indian lilac

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"दरख़्तों के साये में"




मैं यही कोई 4-5 साल का था, तब मेरे घर के ठीक सामने एक नीम का पेड़ था, आज भी है, पर वह आज मुझसे काफ़ी बड़ा होगया है – उम्र में और शायद लंबाई में भी। छोटा था तो लगता था पेड़ों के भी कितने मज़े होते होंगे ना ;ना कहीं जाने की झंझट, ना खाना बनाने, कपड़े धुलने की झंझट ; उन्हें तो मम्मी – पापा की डांट भी नहीं सुननी पड़ती, वो तो मुक्त हैं ठण्डी – गर्मी से भी। मेरे उस छोटे से दिमाग़ में इससे और ज़्यादा, और भला सोचा ही क्या जा सकता था। इससे पहले मैं बड़ा हो जाऊँ, चलिए ले चलता हूँ आपको आज से ठीक 15-20 साल पहले जहां हम दोनों अपने बचपन में थे ; मैं और मेरे द्वार पर लगा नीम का एक छोटा सा पौधा।


एक दिन पापा नीम का पौधा लेकर आए मैं बाहर ही मिट्टी के घरौंदे बनाने में मस्त था, मुझे बहुत पसंद था मिट्टी के घर बनाना, आपको भी शायद रहा ही होगा। उनमें बिल्कुल वैसे ही व्यवस्था करना जैसे आज के या तभी के घरों में पायी जाती थी ;मसलन कि हमारे घर में खिड़की होनी चाहिए, दरवाज़ा होना चाहिए और बाहर बैठने के लिए एक बड़ा सा मैदान तो होना ही चाहिए जिसमें मैं और मेरे हमजोली साथी गुल्ली-डंडा, कंचे, और पकड़म-पकड़ाई खेल सकें। कभी – कभी उन दिनों को याद करता हूं तो लगता है, बचपन में हम कितने कल्पनाशील और उत्साह से लबरेज़ हुआ करते थे, और आज… 

बहरहाल, मैंने पापा से पूछा ये कौन सा पौधा है उन्होंने कहा यह है नीम! मैं उस समय इस नाम से अनजान था मुझे तो ले-देकर आम – जामुन के ही नाम पता थे, वज़ह साफ़ थी क्योंकि उनसे मीठे – मीठे आम और जामुन जो खाने को मिलते थे। मैंने पूछ लिया पापा ये नीम क्या होता है? फ़िर क्या था पापा ने नीम के छोटे से छोटे गुण जैसे ये कि ये, बड़े काम का वृक्ष होता है, ये हमें शुद्ध हवा देने से लेकर औषधीय गुणों का वर्णन, बड़े तफ़सील से किया।

उनका तो कहना था बेटा, ये नीम कई बीमारियों को भी ठीक कर देता है। मैं आश्चर्य की मुद्रा में खड़ा ध्यान से सुन रहा था कुछ बातें समझ आयीं, तो कुछ नीम के पत्तों की तरह सिर के ऊपर से निकल गयीं। पर मेरी बाल बुद्धि ने इतना तो समझ लिया था, कि ये है बड़े काम की चीज। फ़िर महीने साल गुज़रते गए हम दोनों बड़े होने लगे अन्तर सिर्फ़ इतना था, कि मेरी ग्रोथ मेरे चेहरे और अन्य अंगों में आ रहे बदलावों से साफ़ ज़ाहिर हो रही थी, पर उस पौधें में मुझे कुछ अन्तर नहीं समझ आ रहे थे। मैं पढ़ने के लिए हॉस्टल चला गया, जब मैं गर्मियों की छुट्टियों में घर लौटा तो मैंने पाया वो नीम का पौधा अब एक वृक्ष बन चुका था ; मैं कौतूहल से भर उठा उसके करीब गया, शायद मैं अपने बचपन के मित्र से मिलने को इच्छुक था। मैंने देखा उसकी टहनियों को जो अब एक नौजवान की भाँति काफ़ी हृष्ट-पुष्ट हो चुकी थी, उन लंबी – लंबी टहनियों में हरे रंगों से भरी हुई छोटी – छोटी पत्तियाँ मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहीं थीं मानों वो आज भी अपने बचपन के दोस्त को बुला रहीं हों। मैं ख़ुद को रोक न सका और लिपट गया उस नीम के पेड़ से। फिर तो जबतक  मैं घर पर रुका हम दोनों ने खूब साथ में वक्त बिताया, मैंने उन हृष्ट-पुष्ट भुजाओं में झूला डाल लिया, छुट्टियों के वो एक महीने उस झूले, उस ‘दरख्त की छाव’ में हसते – खेलते कब बीत गए पता भी ना लगा और मेरे हॉस्टल जाने का वक्त भी आ गया।


बचपन में लगता था ये नीम का पेड़ कितना खुशनसीब है इसे घर से दूर पढ़ने या काम करने तो नहीं जाना पड़ता ;किंतु, आज 15 वर्षो के बाद उस दोस्त के बारे में मेरा नज़रिया पूर्णतः बदल गया है, आज मैं उसके दर्द को समझ सकता हूँ।  एक ही स्थान पर ठण्डी- गर्मी – बरसात को झेलना कितना कठिन होता होगा, हमने अपने लिए तो ढेरों ताम- झाम कर रखे हैं हमें ठण्ड लगती है तो गर्म मोटे- मोटे लिहाफ़ ओढ़ लेते हैं या जो थोड़ा भी संपन्न हैं, उनके पास हीटर और गीजर जैसे उपकरण हैं जो उन्हें ठण्डी का एहसास तक नहीं होने देते। इसी तरह गर्मी में एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर तो बरसात में हम छाता और रेन कोट जैसे तरह – तरह के संसाधनों से ख़ुद का बचाव कर लेते हैं। पर ये पेड़ तो बोल भी नहीं सकते कि उन्हें ठण्ड लग रही या उन्हें पसीना आ रहा है या ये, कि उन्हें कोई बारिश से बचाए। जैसे हम किसी एक जगह पर रहते – रहते या उसे देखते – देखते ऊब जाते हैं शायद इन बेज़ुबान पेड़ों का भी एक ही जगह, वर्षों से, उन्हीं लोगों को रोज़ाना देखते हुए मन ऊब जाता होगा और शायद उनका भी कहीं और, किसी नयी जगह पर, नए – नए लोगों से मिलने का मन होता होगा। पर उनकी शायद नियति है, उसी एक स्थान पर ताउम्र बने रहना, बस चुपचाप देखते रहना पीढ़ियों के बदलने की अनवरत यात्रा को।


दरख़्त – वृक्ष


तफ़सील से – विस्तार से

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"ख़ुद से मुलाक़ात"




ना जाने कितने दिन बीत गए, शायद एक अरसा होगया ख़ुद से बात किए हुए! ख़ुद से बात? ह्ह् इसमें कौन सी नयी बात है – हम तो रोज ही खुद से रूबरू होते हैं। होते हैं कि नहीं? अरे बताइए, बताइए भाई साब आप से ही पूछ रहे हैं, होते हैं कि नहीं! अजी होते क्यों नहीं बिल्कुल होते हैं। अभी कल ही तो जब चिंटू ने दो रुपये मांगे थे तब मैंने उस पर विचार किया तो था, कि चिंटू टॉफी के लिए ही पैसे मांग रहा या कुछ और के लिए…. अभी कल ही तो ऑफिस के लिए तैयार होते वक़्त ड्रेस और टाई को लेकर गुत्थम- गुत्था हुई थी; और कल ही तो पिकनिक जाने के लिए मुझमें और वैशू में बहसबाज़ी हो रही थी उसका कहना था कि, हम सब मसूरी चले पर मेरा मन तो हरिद्वार कि उन सुन्दर गलियों, उन गलियों में देश- विदेश से आए हुए भक्तों और पर्यटकों के साथ – साथ गंगा तट पर हो रहे संध्या वंदन के दृश्यों में उलझा हुआ था। अब और इससे ज़्यादा क्या खुद से मुलाकात हो सकती है भला! क्या इसे आप खुद से रूबरू होना कहेंगे? बिल्कुल भी नहीं। ये सब तो आपके सामाजिक प्राणी होने के प्रमाण मात्र हैं। भला आप खुद सोचिए, चिंटू की टॉफी, आपकी ऑफिस की वेषभूषा या फ़िर ये कि पिकनिक के लिये कौन सा स्थान सही रहेगा, आपके आंतरिक जीवन से कैसे जुड़ता है? निःसंदेह इन सबका आपके जीवन में महत्व है किन्तु सिर्फ भौतिक जीवन के लिए।


ख़ुद से मुलाक़ात तो तब होगी, जब आप चुपचाप नितांत अकेले , किसी पेड़ की छाव में बैठकर, जहां सिर्फ़ आप होंगे और आपके साथ होगी चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कूक, पत्तों की सरसराहट और आपका सृजन करने वाली प्रकृति, तब उन एकान्त के पलों में आप स्वयं के साथ होंगे, अपने विचारों, अपने अंतर्मन, और भावनाओं के साथ होंगे ; और तब इन एकांत में बिताए हुए कुछ क्षणों में आप पाएंगे कि सचमें आज एक अरसे के बाद ख़ुद से मुलाक़ात हुई।


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"मैंने देखा है उसे"

 




मैंने देखा उसे आज फ़िर,

कुछ गुम सा खोया हुआ,

बेचैन सा शायद,

मैंने उसे आज फ़िर देखा है लड़ते हुए, जूझते हुए खुद से,

वो आज बिल्कुल भी वो नहीं था जो कभी हुआ करता था,

उमंगों से लबरेज़, हंसो सा चंचल।


आज वो उलझा हुआ सा है कुछ ख्यालों में,

मानों खुद से कुछ पूछ रहा हो,

ख़ुद को ढूँढ रहा हो ख़ुद में,

उसके चेहरे से साफ़ नज़र आता है कि,

वो आज बिल्कुल भी वो नहीं रहा जो कभी हुआ करता था ।


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स्वीकार्यता




अगर मुक्त होना है बातों से, जज़्बातों से, ग़लतियों से, और विचारों से तो स्वीकार करना सीखिए ;


सीखिए कला ख़ुद की ग़लतियों को स्वीकारने की,क्योंकि जब हम चीजों को बिन तोड़े- मारोड़े स्वीकार करते हैं, तब हम मुक्त हो जाते हैं ख़ुद के अपराध बोध से। हम मुक्त हो जाते हैं उन तमाम विचारों से जिन्हें लेकर मन निरंतर द्वंद्व कि स्थिति में होता है मसलन कि मैंने ऐसा किया ही क्यों? मुझसे भूल कैसे हो गयी? काश मैंने ये नहीं किया होता तो आज कहीं और होता आदि आदि।


चीजों को, ग़लतियों को स्वीकारने के बाद सब स्पष्ट हो जाता है आईने की तरह, जिसमें हम अपने सुधार की छवि को निहार सकते हैं और कर सकते हैं एक नयी शुरुआत भविष्य की, इसीलिए स्वीकारना सीखिए ।


****

जीवन




एक दिन ये पाने ना पाने का सिलसिला टूट जाएगा,


एक दिन सबकुछ, कुछ पलों में रुक जाएगा….


बस इतनी ही यात्रा  है!


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डॉग






कुत्ता भी कितना प्यारा प्राणी है ना! भगवान का बनाया हुआ एक नायाब जानवर जो वफ़ादारी में इंसानो से भी ज़्यादा साफ़ दिल और वफ़ादार है ।

अपने मालिक के आते ही तुरंत दौड़कर उसके इर्द- गिर्द मंडराने लगता है भले ही, उसका मालिक अभी पाँच मिनट पहले ही उससे मिलकर , उसे पुचकार कर गया हो, फिर भी वह निस्वार्थ भाव से उसी अगाध प्रेम भाव से उससे मिलता है। उसे इस बात से बिल्कुल भी फर्क़ नहीं पड़ता कि लोग, घर वाले या कोई बाहर से आया हुआ अतिथि क्या सोचेगा ;वह तो एक छोटे बच्चे की भाँति अपने माता- पिता से लिपट जाना चाहता एक निष्कपट, निश्चल प्रेम के बंधन में जो इस दुनिया और शायद उस दुनिया के परे है।

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सुख

चुप रहना, शांत बैठना,


इस चिंता से मुक्त होकर


कि हम कुछ सोच रहे हैं


यह भी एक सुख है!


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"मैं" और "वो"

 

पूस का महीना था हवाओं में सर्द ठंडक कहर बरपा रही थी मानों अपने एक प्रहार से ही हाड़ -मांस को गला देना चाहती हो , समय अभी मुश्किल से शाम के 7-8 का ही रहा होगा पर ऐसा सन्नाटा हो चला था कि लगता था, आज ही यहां महामारी या फ़िर किसी दानव के प्रकोप से लोग घरों में दुबक गये हैं । पंछियों के झुंड के झुंड अपने तीव्र कोलाहल के साथ परेड करते हुए अपने-अपने आश्रयस्थलों को उड़े चले जा रहे थे और उन्हीं के साथ मैं भी अपने गंतव्य की ओर!

मेरे जाने में कोई नयी बात नहीं , मैं इसी पथ का राही हूं, हाँ आज अन्तर सिर्फ़ इतना है कि, रोज़ाना मैं 5 बजे ऑफिस से निकल जाता हूँ ताकि ऑफिस के वाहन से घर चला जाऊँ पर आज शायद कुछ ज़्यादा काम की वजह से या शायद कोई और वज़ह से  समय का पता ही नहीं लगा और गाड़ी छूट जाने से आज पैदल ही जा रहा हूं ।ऑफिस से घर मुश्किल से दो मील की दूरी पर होगा पर मुझे आज घर पहुंचने की कोई ज़ल्दी नहीं है। मैं हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड में ऐसे चल रहा था जैसे दिनभर की थकी गायें चरवाहे के बार – बार हांकने पर भी अपनी ही मंद गति से चलती हैं।

सहसा पीछे से आवाज़ आयी, अरे रुको भाई, कहाँ जा रहे हो? …. ये रास्ता तो सुन्दरनगर जाता है ना , वहीं जा रहे हो क्या? मैंने कोई जबाव नहीं दिया, उसने फिर कहा बड़े बेमुरव्वत जान पड़ते हो, मैं भी वहीं जा रहा हूं सोचा साथ हो जाएगा, इतना कहते – कहते ‘वो’ मेरे करीब आ गया मैंने तिस पर भी कोई जबाव नहीं दिया बस चलता रहा। स्टील की कंपनी में काम करते हो ना, मैं भी वहीं काम करता हूँ, उसने कहा। मैं अपनी चाल में मन्द- मंद चले जा रहा था, मेरा उससे बात करने का मन नहीं था या मैं उस वक्त कुछ सुनना नहीं चाहता था, पता नहीं!

पर वो भी अजीब था बिलकुल मेरी तरह! मेरे कोई जबाव ना देने पर भी उसे कोई झिझक नहीं हुई.. मैं बस सुनता चला जा रहा था उसकी बातें। उसने कहा अजी कहाँ गुम हो? उसने मुझे ज़ोर से झकझोर दिया , कुछ बोलते क्यों नहीं, मैं अबतक जैसे किसी अलग ही दुनिया में था अचानक मैं बोल उठा, हाँ! .. मैंने शर्मिंदगी के भाव से कहा माफ़ करियेगा मेरा आप पर ध्यान नहीं गया! उसने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा और कुछ मिनटों तक बस देखता ही रह गया जैसे वह सबकुछ पढ़ लेना चाहता हो ;वह सबकुछ, जिसे मैं पिछले 20 वर्ष से ढो रहा था अंदर ही अंदर! उसने फ़िर मुस्कराते हुए कहा कोई राज़ की बात हो तो हमें भी बताओ भाई! मैं चुपचाप किन्तु अब तीव्र कदमों से घर की ओर बढ़ा चला जा रहा था जैसे सहसा मुझे कोई अति आवश्यक बात याद आ गयी हो! उसने भी क़दम बढ़ाए और मेरे साथ हो लिया। मेरा भी घर यही सुन्दर नगर में हैं उसने कहा, मैंने उसकी तसल्ली के लिए सिर हिला दिया, आज से कोई 20 वर्ष पहले मैंने यहीं पास की स्टील कम्पनी में जूनियर सुपरवाइज़र के पद पर नियुक्ति प्राप्त की थी और आज मैं मैनेजर के पद पर पहुंच गया हूं, वैसे आप किस पद पर हैं भाई साहब? उसने मेरा पद नहीं, बल्कि ये जानने के लिए पूछा था कि मैं उसकी बातों को सुन रहा हूँ या नहीं! मैंने कहा जी मैं भी मैनेजर के पद पर इसी वर्ष पदोन्नत हुआ हूँ, उसने कहा अच्छा अच्छा! मेरा जबाव पाते ही वो महाशय फिर शुरू हो गए.. मैंने जब आज से बीस वर्षं पहले जॉइन किया था तब मैं नवयुवक था उस समय बड़ी ख़ुशी हुई थी जॉब मिलने की, आज भी है पर उतनी नहीं, थोड़ी मंद आवाज़ में मुंह पिचकाते हुए उसने कहा। मुझे उसकी बातों में कुछ – कुछ रुचि पैदा हुई मैंने पूछ लिया, क्यों?

क्यों क्या भाई! उदासी के भाव से उसने फिर मुँह पिचकाया, और मुंह में भरे हुए पान की गिलोरी को थूकते हुए बोला, जब नौकरी मिली तो लगा चलो अब दुनिया की झंझटों से मुक्त हुए, अब समाज के, घरवालों के, ताने नहीं सुनने पड़ेंगे ‘अब दूसरी ज़िन्दगी होगी’ , मैंने सिर हिलाते हुए कहा, तो? तो क्या! घर, समाज के ताने तो छूट गए, पर उन तानों के साथ और भी बहुत कुछ छूट गया, उसने कहते हुए गहरी साँस भरी! मुझे उसकी बातों में  रोमांच पैदा होने लगा मैं फिर मन्द गति से चलने लगा, उसकी बातों में मुझे कुछ-कुछ अपनेपन की मीठी किन्तु उतनी ही जानी -पहचानी सुगंध आने लगी थी ।

शाम ढल चुकी थी सूर्यदेव अस्त हो चले थे और कहीं- कहीं झींगुरों की आवाज़ सुनाई पड़ जाती थी, हम दोनों, चले जा रहे थे दो मील के एक ऐसे रास्ते पर जो पिछले एक घण्टे से ख़त्म ही नहीं हो रहा था। मैंने पूछा, ऐसा क्या छूट गया आपका?  सब तो है आपके पास ;एक अच्छा मकान , सुन्दर पत्नी, दो सुन्दर – सुन्दर बच्चे हैं, अच्छा खा रहे हैं, पहन – ओढ़ रहे हैं और इससे ज़्यादा भला किसी आदमी को ख़ुश रहने के लिए क्या चाहिए। उसने फिर गहरी साँस भरी और गम्भीर स्वर में बोला “भाई! अच्छा घर बीवी, बच्चे, ये सब होना खुशी के साधन हैं, वास्तविक ख़ुशी नहीं ", मैं ध्यानपूर्वक उसकी बातें सुन रहा था उसकी बातों में मुझे अपनापन महसूस हो रहा था। मैंने आश्चर्य के भाव से पूछा तो फिर क्या होने से ख़ुशी मिलेगी और आप कुछ छूटने की बातें कर रहे थे ना! उसने कहा हाँ! इन बीस वर्षों के दीर्घ समयान्तराल में बहुत कुछ पीछे छूट गया है भाई! वो बचपन के दिन, मैं मुश्किल से उन दिनों 18-20 वर्ष का मस्ती, जोश और शरारतों से भरा युवक ही तो था ; एक अलग ही ऊर्जा थी उन दिनों कहते – कहते उसकी आवाज़ भर्रा उठी और आँखों से दो बूंद आंसू ढुलक गए, मैंने सांत्वना दी भाई साब सम्भालिये, उसने कहा वह ठीक है ! मेरी फ़िर कुछ और पूछने की हिम्मत नहीं हुई हम दोनों चुपचाप मौन धारण किए कुछ कदम चलते रहे कि उसने कहा, भाई! कैसी अज़ीब ज़िन्दगी हो गयी है घर से से रोज़ सुबह 9 बजे काम पर आता हूं, दिनभर यहाँ मशीनों को चलते, उनकी खट – खट की आवाज़ों को सुनता हूं, उनपर रोज़ वही काम कर रहे उदास चेहरों को देखता हूं और फ़िर घड़ी के पाँच बजाते ही घर को निकल जाता हूं, इसी रास्ते से, कभी पैदल तो कभी बस से! बस इतनी ही ज़िन्दगी रह गयी है। उसकी बातों में मैं जैसे खो सा गया था, उसके शब्दों में, मैं कहीं ना कहीं ख़ुद को ढूँढ रहा था कि सहसा फ़िर एक जानी-पहचानी आवाज़ आयी पर ये उसकी नहीं थी ; ये तो मेरी पत्नी नंदनी की आवाज़ थी। “आज बड़ी देर कर दी!”

मैंने कहा ‘हाँ’ !

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"तुम्हारें जाने के बाद"

मैं जानता हूं तुम एक दिन चले जाओगे बहुत दूर कितना दूर नहीं जानता शायद इतना कि मैं जान सकूँ  तुम्हारा जाना क्या होता है शायद इतना...